Tuesday, April 17, 2007

ये "खेल" नहीं है


वर्जीनिया में हुए हत्याकांड के बारे में जान कर एक बार फिर से मेरे विचारों की आग को हवा मिल गई है। सबसे पहला सवाल जो ज़हन में आता है, वो ये कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? क्या वजह रही होगी, जो कोई स्टूडेंट (या फिर कोई और) अचानक से ऐसा कदम उठाने को मजबूर हुआ हो? पुलिस ने इस घटना में आतंकवादियों का हाथ होने से तो साफ इनकार कर दिया है। हमलावर ने पहले अपने साथियों और प्रोफेसरों पर अंधाधुध गोलियां चलाईं, और फिर खुद को भी खत्म कर लिया। ये कैसी शिक्षा है।
ग़लती पढ़ाई की नहीं है। क्योंकि अग़र पढ़ाई की ग़लती होती, तो सभी ऐसा सोचते। कोई न कोई खतरनाक कदम उठा कर, शायद अपने आप को सिद्ध करने की कोशिश करते। लेकिन ये सच नहीं है। सच ये है कि खराबी पढ़ाई में नहीं, सिस्टम में है।
वैसे सिस्टम को भी गाली देना मुश्किल काम नहीं है। हम में से ज्यादातर यही काम करते हैं। खास कर आम आदमी और उनका साथ देता पत्रकार। लेकिन यहां खराबी सिस्टम में इसलिए है, क्योंकि वो ऐसा सिस्टम नहीं है, जो हर किसी को अपने साथ लेकर चल सके। और इसलिए, सौ में से एक ऐसा निकलता है, जो कोई न कोई खतरनाक कदम चुनता है। अपनी और अपने दोस्तों की ज़िंदगी खतरे में डालता है।
सुबह से ही ये खबर हर चैनल पर है। शायद देर रात से ही... लेकिन एक बार फिर से, हर बार की तरह, भारतीय मीडिया ने इस खबर पर भी चटखारे लेने का रास्ता निकाल ही लिया। हां, शायद चटखारे शब्द पढ़ कर आपको लगा हो कि मैंने कुछ ग़लत लिख दिया है, तो मैं आपको बताना चाहता हूं, कि मैंने ये शब्द बहुत सोच समझ कर लिखा है। क्योंकि मेरे हिसाब से, "कैम्पस में खूनी खेल" चटखारे वाला ही कैप्शन है।
जो कुछ दुनिया के सबसे समृद्ध देश में कल हुआ, वो महज़ एक "खेल" नहीं है। वो एक सिरफिरे की घिनौनी हरकत है। उसे खेल कहना, सरासर ग़लत है।
हालाकि एक बार फिर से ये बात कहना ज़रूरी हो जाता है कि हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं। इसलिए जहां पहली नज़र में "खूनी खेल" देख कर मेरा खून खौला, वहीं दूसरी तरफ, कुछ अंग्रेज़ी चैनलों के रवैये की मैं तारीफ करना चाहुंगा। हमले में हुई भारतीय प्रोफेसर की मौत की खबर, एक अंग्रेज़ी चैनल ने ही उसके घर वालों तक पहुंचाई। खबर को ख़बर की तरह की पेश करना, पत्रकार का काम है। चटखारे लेने हैं, तो बॉलीवुड जाइये, टैबलॉइड में काम कीजिए।

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